घर की लड़की की विदाई का scene बड़ा ड्रामेटिक होता है, आपके रीति रिवाजों का पता नहीं पर हमारे यहाँ देर रात तक फेरे चलते है और विदाई सुबह सवेरे 5 बजे के करीब होती है। ख़ास रिश्तेदारों को छोड़ बाकी जनता तो फेरे ख़त्म होने तक रफूचक्कर हो चुकी होती है। बाकि बचे लोग भी जंभाई ले रहे होते हैं। मन ही मन सोच रहे होते है, काम निपटे तो जाकर जल्दी बिस्तर पकडे। ज्यादातर आदमी लोग तो शांति से ही खड़े होते है पर लड़की के दरवाजे तक पहुँचते पहुँचते औरतों के घूंघट से रोने जैसी ध्वनि निकलना शुरू हो जाती है। बड़ी ही अजीब सी आवाज़ होती है वह, आप कभी किसी को इस तरह कि आवाज़ के साथ रोते नहीं पाएंगे। शर्तिया एक आंसू तक नहीं निकला होगा। लड़की के भाई पीछे खड़े जीजाजी की बहन को ताड़ रहे होते है। उधर बापू जी बेचारे समझ नहीं पाते कि क्या expression दूँ, हाल तो बस माँ का बुरा होता है। जिगर का टुकड़ा जो बिछड़ रहा होता है। बेटी को भी तब तक रोना नहीं आता जब तक माँ के आंसू देख उसे यह एहसास नहीं हो जाता कि वह अपनी माँ से बिछुड़ कर पराए घर जा रही है। उधर दामाद जी full confusion में होते है। समझ नहीं पाते कि नई नवेली रोती हुई बीवी को चुप कराए भी या नहीं, इसी confusion में car तक पहुँच जाते है।
Sachin कि विदाई की ख़बरें देख देख कर यह सब याद आ गया।

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