रक्षाबंधन और भरदुतिया के आलावा सामा-चकेवा भी भाई-बहिन के प्रेम को दर्शाने वाला एक त्यौहार है. भरदुतिया से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक पुरे तेरह दिन तक मनाया जाने वाला मिथिला का यह पारम्परिक त्यौहार दुर्भाग्यवश देश के कई अन्य त्योहारों और परम्पराओं की तरह समाप्त होने की कगार पर है.
एक समय था जब हम छोटा हुआ करते थे तो दिवाली के बाद और छठ पूजा के पहले लड़किया और महिलाएँ पुरे उल्लास और उत्साह के साथ छठ पूजा के साथ-साथ सामा-चकेवा के तैयारी में भी लग जाते थे. सिक, सुतली और धान की बाली का जुगाड़ हप्तों पहले से किया करती थी. छठ पूजा से पहले ही लडकिय अपने दादी-नानी से वृंदावन, चुगला आदि बनवा लेती थी.. ऐसी परंपरा है की छठपूजा के पहले ही इसे बनाया जाना अनिवार्य है.
छठ पूजा के भोरका अरक के रात से पुरे टोले के लडकियां और महिलाएँ ( जिसमे 6-7 साल की बच्ची से लेकर 70-75 साल के उम्र के महिलाएँ होती थी) किसी खुले जगह या कुआँ पे सामा-चकेवा के मूर्ति के साथ-साथ वृंदावन, चुगला आदि को एक डाला में भर के इकठ्ठा हो जाती थी. तरह- तरह के गीतों का सिल-सिला शुरू हो जाता था जो की घंटो तक चलता था. ‘गाम कए अधिकारी तोहें बड़का भैया हो, हाथ दस पोखरि खुना दिए, चंपा फुल लगा दिए हे, वृंदावन मे आगि लागल कियो नहि मिझाबे हे, हमर बड़का-छोटका भईया मिलकए मिझाउत जैसे मधुर लोकगीतों से पूरा वातावरण मधुर हो जाया करता था. लडकियाँ और महिलाएँ सामा-चकेवा और दुसरे मूर्तियों से भरा डाला एक दुसरे के हाथ में देकर अपने भाई के लम्बी आयू की कामना करती थी. यह क्रम कार्तिक पूर्णिमा तक चलता था

कार्तिक पूर्णिमा के दिन भाईलोग में (जिसमे मैं भी शामिल हुआ करता था) अपने बहनों के सामा-चकेवा के मूर्तियों के विसर्जन के लिए अच्छा से अच्छा डोली बनाने का होड़ मचा होता था. शाम को सरे मोहल्ले की लडकियाँ और महिलाएँ झुण्ड में गीत गाते हुए और भाई लोग अपने कंधे पर डोली लिए गॉव के पोखर पे पहुँच कर मूर्तियों का विसर्जन उसी डोली पर बिठा कर कर देते थे.... और चुगला को उसके बुरे चरित्र के लिए जला के किसी खेत में फ़ेंक देते थे. उसके बाद बहनें भाई को चुरा या मुढ़ी के साथ कुछ मीठा चीज अपने भाई को दिया करती थी... और भाई उसका कुछ हिस्सा बहनों को वापस देते थे... इसी के साथ तेरह दिनों तक चलने वाले इस त्यौहार का अंत हो जाता था.....
और एक आज का समय है.. गौवों में भी एक्का-दुक्का किसी दरवाजे 2-4 महिलाएँ बैठ के इस पर्व को मनाते दिखती है. आधुनिकता ऐसा भुत हमलोगों पर सवार हो चूका है... की इस तरह के त्यौहारों को मानना अब हमलोग पिछड़ापन समझने लगे है... सामा-चकेवा के मधुर गीत हमारे पीढ़ी के लोगो में एक्के-दुक्के को ही आती है. और मुझे तो लगता है हमारी आने वाली पीढ़ी को शायद इसका नाम भी पता नहीं होगा.
अत: मैं पढ़े-लिखे तथाकथित आधुनिक लोगो से यह आग्रह करता हूँ की अपनी संस्कृति को अगर अक्षुण रखना चाहते हैं तो अपने त्योहारों और परम्पराओं को बचाने के लिए आगे आगे आईए.... अपनी परम्पराओं, त्यौहारों और लोक संस्कृति को अगली पीढ़ी तक पहुंचाएं... नहीं तो वो दिन दूर नहीं की हमारी अपनी कोई पहचान नहीं रह जाएगी....
अमित सिंह

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