हाँ बहुत बेफिक्र जी रहा था मैं,

जो बस साथी थे कुछ लम्हों के उन्हें हमसफ़र मान मदमस्त चल रहा था मैं,

हाँ बहुत बेफिक्र जी रहा था मैं,

मेरी हृदय की हर तरंग उनके हृदय से गुजर रही है न जाने किस भरम में था मैं,

वो बस वही बस गए थे जैसे रग - रग में मेरी

हर साँस मेरी खुसबू उसकी रम रहा था मैं

हाँ बहुत बेफिक्र जी रहा था मैं,

वो बस हाथ थाम के चलते रहे डगर - ए - जिंदगी पर कुछ पल को

और उनको अपनी तकदीर समझ रहा था मैं,

वो पल भी आया जब वो खबर दे गए अपनी नई दुनिया बसाने की,

खामोश था मैं और उनके आँखों मे खुशी थी नई जिंदगी सजाने की,

देखता रहा मैं कतरा-कतरा बहते हृदय से लहू धरा पर अपने हृदय में बसे फ़साने की,

हाँ बहुत बेफिक्र जी रहा था मैं,

एहसास तब हुआ अब न जाने क्यूँ

वो राही नहीं था बस पल भर का वो तो मेरी जीने की वजह थी जिसे हमने कोशिश तक न कि बचाने की,

मिट चुकी थी हस्ति मेरी अब हृदय मौन था,

हाँ बहुत बेफिक्र जी रहा था मैं,

अब न जाने जीने की चाहत से कोसों दूर था

न आरजू रही शेष थी न हृदय की जिस्म से मेल थी

बस लम्हा - दर - लम्हा आगोस में जाने को आखिरी सफर में जिंदगी की मेरी रूह भी जैसे चूर थी,

हाँ बहुत बेफिक्र जी रहा था मैं,

अब न जाने किस गहरी नींद में सोने को मदहोश था

जब था वो पास मेरे तो शदियाँ भी छोटी थी और

न जाने अब क्या कवायत थी कि एक लम्हा जीना भी शदियों के दर्द का एहसास था,

बस गुजरते हर पल के साथ सर्वदा को मौन होने का इंतजार था,

हाँ बहुत बेफिक्र जी रहा था मैं,

वो कौन था मेरा न जाने क्या नाता था की हृदय को उसके बगैर एक पल को भी धरकना ना मंजूर था,

हाँ बहुत बेफिक्र जी रहा था मैं...।।

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