महोदय, ह्रदय द्रवित है | खुद से प्रशन कर रहा हूँ ! लिखूं या न लिखूं ! सोच सोच कर दिमाग का नस फटते जा रहा है | समझ में नहीं आता करूँ तो क्या करूँ | पता है मुझे आप दुसरे के द्वारा लिखे गए पोस्ट, संवाद, कहानी को झाकतें तक नहीं | फिर भी लिखने से अपने आप को नहीं रोक पा रहा हूँ | आशा है कि आपकी नजरो की इनायत इस द्रवित ह्रदय को जरुर मिलेगा |

 

सही ही तो कहा आपने, पिछले छः महिना से पटना के नालियों, गलियों का हमने इतना चक्कर लगा लिया है कि अब हवा के गंध से नाली का नाम याद आ जाता है | धुप, गर्मी, लूँ ,पसीने, थकान आज भी हम झेल रहें हैं, फिर भी दीवानों की तरह लगले हैं | लेकिन आज का बदलाव और आपके तेवर देख कर मुझे ये खुला पत्र लिखने को मजबूर होना पड़ा ! जनाब आपने जब कहा की अब आप सिर्फ सभा में जायेंगे और भाषण देंगे, गलियों में घूमना आपके बस के बात नहीं ! तो मैं अपने आप को मंद मंद मुस्कुराने से नहीं रोक पाया | उसी मुस्कराहट के सिलसिले को बरक़रार रखते हुए ये नाचीज इन्सान आपसे निम्न प्रशन करता है | |

  1. क्या आपने बोलने से पहले ये सोचा कि आपका नेता गली में अकेले बिना किसी के परवाह किये कैसे घूमतीं होंगी ?
  2. क्या आप अपने आप को उनसे बड़ा नेता मानने लगे हैं ?
  3. क्या बदलाव की बात एक हसीन सपना बन कर रह जाएगी ?
  4. क्या आप ने अपने आप को उन लोगों की श्रेणी में देखना शुरू कर दिया जो बिन पेंदी के लोटा बने फिरते हैं ?
  5. क्या जनता आपको नेता मानेगी या आप स्वयंभू नेता कहलाना पसंद करेंगे ?

साथी, आपके जज्बे को नमन ! बार बार सलाम ! आप जैसे काम करने वाले इन्सान बिरले ही मिलते हैं | भटकाव के इस पल में अपने आप को समेटिये ! काम निष्ठा से करते रहिये | वह दिन दूर नहीं जब जनता आपको नेता मानेगी | जी हाँ यही जनता आपको सर पर बैठायेगी | नहीं तो हजारों यूँ ही क्रिच दिया हुआ उजला कुरता पैजामा पहने नेता बनल घूमते रहतें हैं | आगे आप समझदार हैं !

 

आपका एक साथी

अविनाश

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