आज जब शाम ढलने को थी, तब सुबहा का एक किस्सा याद आया,
जिसे देख कर भी टाल दिया था, वह फिर सामने तैर आया। 
जो कस कर गले लगाने को थे, उन्हें दूर कहीं छोड़ आया,

अपनी सारी दौलत मुझ पर सवार दी जिसने, उन्हें बस 'शुक्रिया' बोल आया !

 

 

जैसे रंगों के नाम बदलें, वैसे आंखों ने नया नजरिया पाया,
एहम नहीं थी जो बातें उन्होंने, जैसे नया वजूद पाया।
अब तक थे जो महज़ कुछ किस्से, यादें; उनमे जीवन का मर्म पाया,

जो बस मुस्कुरा कर खड़ा था पीछे, उसही मैं सचा दोस्त पाया।  

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