मैंने अपने आप को बहुत रोकने की कोशिस की | मन को मना लिया की नहीं लिखूंगा | लाल रंग से पता नहीं कब जाने-अनजाने में प्यार जो हो गया था मुझे ! लेकिन इस सफ़र को कुछ और ही मंजूर था | साइड अपर वाली सीट पर बैठा राँची से बोकारो तक खाली पड़ी कम्पार्टमेंट में यूँ ही नजर फिसल गयी थी | आखें खुली की खुली रह गयी | अरे ये क्या ! साथी जो कुछ खाने का सामान ले ऊपर आ गये थी उन्हें आखों से इशारा किया | बेचारे पीछे मुड़े, एक दो बार कंफ्यूज होने के बाबजूद उन्हें आखों की भाषा समझ आ ही गयी | शायद ही दुनिया और कोई समझ सकता पाता | खैर !

 

यहाँ न लाल साड़ी था, न लाल लिपिस्टिक, न लाल बिंदी, न मेहदी, न ही तीखे नैन नख्स | बस सामने वाली मिडिल बर्थ पर एक खूबसूरत पैर लाल अलते में सरोबार अपनी कहानी कहने को आतुर | मेरी नजरें बरबस उसके तरफ खिच गई | चुपके से नजरें चुरा फिर से देखा | पता नहीं और कितनी बार | लेकिन जब भी उधर नजरें जाती, हाय रब्बा मानो हर पल वो पैर मुझे पहले से ज्यादा ही खुबसुरत नजर आती | गोरे पैर के इर्दगिर्द वो पतली सी लाल रंग की लकीर युवा दिल को छलनी कर लाल शोणित बहाने वाली तीर के समान मुझे महसूस होने लगी | पांचो ऊँगलीयों को बड़े यतन से सजाये थे उसने और उन ऊँगलीयों के बीच एक बिछुये मानो पूर्णिमा के चाँद की तरह अपनी रौशनी बिखेर रही थी |

 

ज्यों ज्यों ट्रेन का रफ़्तार बढ़ता लाल अलते के साये से दूर हो पायल बजने को तड़पने लगती | लेकिन पता नहीं क्यों उस लाल अलते के सामने उस चाँदी के पायल की चमक फीकी लगने लगी | उस सुंदरी को देखा नहीं था | मन में एक तड़प जग गयी थी | आखें दीदार करने को आतुर होने लगी | लेकिन शायद इस सफ़र को यही खत्म होना मंजूर था | किसी ने टिक के आवाज से साथ बल्ब बुता दिया था | अन्धेरें के झलफल में वो बिछुये तो दिख जाते मुझे, पायल भी लेकिन लाल अलता | वो गोरें पैरो में विलीन हो चुका था | लाल अलते के कहानी का निर्मम अंत हो चुका था |

 

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