रात सपने बुन रही थी
तंग गलियारों से गुज़रती
पहली किरण की
वो प्रतीक्षा कर रही थी

कुछ गदराई सी मदमस्त बहती
चंचल सी वो हवा
अनमनी कुछ अनसुनी
अपनी कहानी कह रही थी
वो प्रतीक्षा कर रही थी .

थी नमी बाकी अभी
एक कोर गीला अब भी था
कुछ बूँद छीटें बह रही थी
वो प्रतीक्षा कर रही थी

संग कोई साथ ना था
रंग कोई पास ना था
मन ही मन में
कुछ उफनती
जंग कोई कर रही थी
वो प्रतीक्षा कर रही थी

क्या घटा अब हाथ क्या था
थी घटा पर साथ क्या था
मंद हो मकरंद सासें
ऊंघती अनमनी सासें
क्लांत उसको कर रही थी
वो प्रतीक्षा कर रही थी .

क्यों करूँ और क्या करू मैं
कर छमा फिर क्यों हरु मैं
मझधार की प्रालोभना में
वो बिखरती
टूटकर फिर जुड़ रही थी
डूबकर फिर तर रही थी
वो प्रतीक्षा कर रही थी .

फिर रात ने चादर समेटी
एक रंग ने दस्तक सी दी ..............................

क्या हुआ इतिहास वो है
क्यों हुआ परिहास वो है
हम हुए बस भास् ये है
हम रहें बस पास ये है .

Tags: Poetry, Love

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