हमारे जमाने में इंग्लिश ६ वीं कक्षा से शुरू होती थी. ये बात सातवीं कक्षा की है. अब दो साल में मैंने कितनी इंग्लिश सीखी होगी आप बखूबी समझ सकते हैं. इंग्लिश का पेपर होने वाला था और मास्टर जी ने बताया था की माय बेस्ट फ्रेंड का एस्से जरूर आएगा. पूरी कोशिशो के बाद भी एस्से याद नहीं हो पा रहा था. फिर मैंने वो करने की ठानी जो आज तक कभी नहीं किया था. मैंने नक़ल करने के लिए बहुत छोटे-छोटे अक्षरों में एस्से लिख कर एक पर्ची बनाई और जेब में रख ली. परीक्षा कक्ष में जैसे ही प्रश्न पत्र मिला मैंने बड़ी बेचैनी से उसे पूरा पढ़ा और इत्मीनान की सांस ली क्योंकि माय बेस्ट फ्रेंड का एस्से प्रश्न पत्र में पूछा गया था. बाकी सारे प्रश्न मुझे आते थे और इस एस्से की पर्ची मेरी जेब में थी, तो फिर बल्ले बल्ले. दरअसल किसी भी परीक्षा में होता ये है की शुरू-शुरू में निरीक्षक के रूप में तैनात शिक्षक काफी चौकन्ने रहते हैं और व्यवस्था बड़े चाक-चौबन्द रहती है लेकिन अंत तक आते-आते वो लोग थोड़े-थोड़े बेपरवाह या कहिये ढीले हो जाते है. अब कोई समझदार आदमी होता तो पहले वो सारे प्रश्न करता जो उसे आते थे और सबसे बाद में नक़ल करता जब निरीक्षक ज्यादा ध्यान नहीं देतें. लेकिन मेरी एक नौसिखिये के तौर पर सोच ये थी कि जो प्रॉब्लम वाली चीज है वो सबसे पहले निबट जाए फिर तो सब आता ही है, बाद में आराम से पूरा पेपर कर लूँगा. तो साहब हमने सबसे पहले ही वो पर्ची निकाल ली. पर्ची को डेस्क के अन्दर रखा और बाए हाथ से डेस्क के दो लकड़ी के फट्टो के बीच से मैं उसे थोडा ऊपर निकालता, एक लाइन पढ़ता और वापस नीचे खींच देता. दाए हाथ से उस एक लाइन को लिखता और फिर अगली लाइन को देखने के लिए फिर से पर्ची को ऊपर निकालता. चार पांच लाइन ही लिख पाया था कि प्रधानाचार्य जी, रामेश्वर प्रसाद जैन, का औचक निरीक्षण अर्थात् सरप्राइज इंस्पेक्शन हुआ. वो कमरे के एक दरवाजे से घुसे और पूरे कमरे में एक चक्कर लगाने के बाद मेरे पास आकर खड़े हो गए.
“खड़े हो जाओ” उनकी आवाज गूंजी.
मैं लगभग कांपते हुए खडा हो गया. उन्होंने डेस्क को थोडा सा टेढ़ा करके उनके अन्दर देखा. हाथ डाल कर वो पर्ची बाहर निकाली और मेरे गाल पर एक जोरदार तमाचा रसीद करके चीखे
“क्या है ये?”
मैं भला क्या जवाब देता. ७ वीं की घरेलू परीक्षा थी, तो कोई फांसी तो होनी नहीं थी बस वो पर्ची अपने साथ लेकर चले गए. मेरे कमरे में जिन अध्यापक महोदय की ड्यूटी थी उनका नाम घनश्याम रोझा था और वो मुझे अच्छे से जानते थे. वो प्रिंसिपल साहब के पीछे पीछे लपके और बरामदे में उन्हें रोक कर बोले
“अरे सर ये क्या कर दिया ये तो अपने शर्मा जी का लड़का है”
प्रिंसिपल साहब ने मुस्कुराते हुए वो पर्ची रोझा जी को वापस कर दी और बोले
“शर्मा जी का लड़का है? अच्छा ठीक है उसे वापस दे देना और नक़ल करने दो”
रोझा मास्टर जी मेरे पास आये बड़े प्यार से सिर पर हाथ फेर कर बोले
“बेटा आता नहीं है क्या? चल कोई बात नहीं ले लिख ले”
और पर्ची मुझे वापस दे दी. अब तो मुझे किसी राजा-महाराजा जैसी फीलिंग आ रही थी मुझे तो पता ही नहीं था कि मेरे पिता जी इतने बड़े आदमी हैं. अब मैंने उस पर्ची को सीधे डेस्क के ऊपर रखा और पूरे अधिकार के साथ खुले आम नक़ल की. बाकी के सारे प्रश्न मुझे आते थे तो कुल मिला कर पेपर बहुत अच्छा हो गया.
आप सोच रहें होंगे कि प्रिंसिपल साहब ने मेरे पिताजी का नाम सुन कर पर्ची वापस क्यों की? मेरे पिता जी कोई डॉन या बड़े सेठ या बाहुबली नहीं थे वो उसी स्कूल में वाईस-प्रिंसिपल अर्थात उप-प्रधानाचार्य थे.
पूरा दिन तो बड़े मजे में गुजरा लेकिन शाम को घर लौटने के समय मुझे कंपकपी आने लगी थी क्योंकि ये तो तय था की पिता जी को पूरा प्रकरण पता लग गया होगा और मेरी शामत आने वाली थी. शाम को जब मेरी उनके सामने पेशी हुयी तो मेरी आशा के विपरीत उन्होंने मुझे मारा नहीं लेकिन जो कहा वो मारने से भी ज्यादा पीडादायक था.
“आज तुमने हमारी जीवन भर की तपस्या भंग कर दी. नक़ल करने से तो अच्छा था कि तुम फेल हो जाते. कल तक जो लोग हमारे नाम की कसमे खाते थे आज वो ही लोग थूक रहें है हमारे नाम पर. पूरे शहर में तुमने हमें मजाक बना कर रख दिया. हमें लज्जा आती है तुम्हे अपना पुत्र कहते हुए. क्या ये ही दिन देखने के लिए हमने तुम्हे पाल पोस कर बड़ा किया था. तुमने हमारे मुंह पर पर कालिख पोत दी है और हमें पूरे शहर में किसी के सामने मुंह दिखने लायक नहीं छोड़ा.......”
मेरा मन कर रहा था काश ये धरती फट जाए और मैं उसमे समा जाऊं. इससे अच्छा तो वो मुझे पीट लेते. लेकिन ना ही धरती फटी और ना ही उन्होंने मुझे हाथ लगाया. लेकिन बिना हाथ लगाये भी उन्होंने मुझे इतना मारा कि उस दिन लगे घाव के दाग जीवन भर के लिए मेरे ह्रदय पर स्थायी रूप से अंकित हो गए. मैंने जीवन में बहुत सारी परीक्षाये दी किन्तु जीवन पर्यन्त फिर कभी नक़ल नहीं की. यहाँ तक की विभिन्न परीक्षाओ के प्रश्न पत्रों के बन्द लिफ़ाफ़े पहले दिन मेरे घर में रखे रहते थे और अगले दिन मुझे वो ही परीक्षा देनी होती थी लेकिन मैंने उन लिफाफों की ओर कभी आँख उठा कर भी नहीं देखा.

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