जो लोग मुझे करीब से जानते हैं उन्हें पता होगा कि मैं कभी जुआ नहीं खेलता. कोई कितनी भी जिद करे मैं ताश में भी कभी पैसो वाला खेल नहीं खेलता, भले ही चाल (बूट) चाहे दस पैसे की ही क्यों हो. वैसे मुझे ताश के लगभग सारे खेल आते हैं लेकिन पैसे लगेंगे तो मैं नहीं खेलूंगा. यहाँ तक कि मुझे लोटरी से भी सख्त नफ़रत है और मैं कभी लोटरी का टिकट भी नहीं खरीदता. इसके पीछे एक बहुत पुरानी कहानी है.
बात दसवी कक्षा अर्थात 1985 से पुरानी है. एक बार बडौत में एक बहुत बड़ा मेला लगा. उस वक़्त उस मेले को नुमाईश कहते थे. नुमाईश रेलवे रोड पर रेलवे स्टेशन से भी काफी आगे, बिजली घर से भी आगे, शहर से बाहर एक खुली जगह में लगी थी. इस नुमाईश में सभी तरह की दुकाने थी, जिनमे खाने–पीने से लेकर, श्रृंगार, कपड़ो, प्लास्टिक के सामानों, खिलौनों, फर्नीचर, सजावटी सामन की दुकाने थी. मुझे जो सबसे ज्यादा पसंद आती थी वो थी जादू के सामान की दूकान. इसमे अलग अलग तरह के जादू करने का सामान बिकता था. दुकानदार कोई एक जादू करके दिखाता और कहता कि अगर तुम्हे भी ये जादू करना है तो वो सामान खरीदना पड़ेगा तब ही वो जादू करना सिखायेगा. छोटी प्लास्टिक की गोली को बड़ी करना और फिर छोटी कर देना, सिक्के को गायब करना और फिर वापस ले आना, नकली नोटो की गड्डी का एक बार सफ़ेद और एक बार प्रिंटेड हो जाना, कपडे की डोरी का सीधे खड़ा हो जाना वगैरहा वगैरहा. नुमाईश में वजन तोलने की मशीने थी जिनमे वजन बताने वाले टिकट के पीछे आपका भविष्य भी लिखा रहता था. उस ज़माने में विडियो गेम नहीं होते थे लेकिन फिर भी बहुत सारे अलग अलग तरह के गेम मेले में थे जैसे एक फूटबाल को मुक्का मारना जिससे आपमें कितना दम है इस बात का एक मीटर घूमता था और आपकी ताकत बताता था. एक दूसरे गेम में एक चाबी को एक पतली सी स्टील की रॉड के ऊपर बिना छुये चलाना होता था. अगर वो कही भी रॉड को छू गयी तो हॉर्न बजने लगता था और अगर आपने उसे दूसरी तरफ बिना छुये पहुंचा दिया तो ईनाम मिलता था लेकिन कोई भी नहीं पहुंचा पाता था. साबुन, गुडिया, खिलौने आदि को लकड़ी का रिंग फेंक कर जीतना होता था. लकड़ी का रिंग जिस भी सामान पर गिर जाए वो ही आपका. लेकिन रिंग है कि किसी भी चीज को पूरी तरह घेरता ही नहीं था और गिरते ही उछल जाता था. एक और गेम में आपको तीन बार गेंद मार कर सामने रखे सारे स्टील के गिलास गिराने होते थे, लेकिन तीन बार गेंद मारने पर भी कोई ना कोई गिलास बच ही जाता था.
कई दिनों की जिद और अनशन के बाद दो रूपये का बजट सेंशन हुया और वो भी सिर्फ और सिर्फ सर्कस देखने के लिए क्योंकि सर्कस की सबसे पीछे वाली सीट की टिकट का दाम दो रूपये था. सर्कस के तीन शो होते थे; दोपहर एक बजे, फिर चार बजे और शाम सात बजे. मैं खुशी में नाचता कूदता शाम सात बजे वाला शो देखने के लिए घर से तीन-चार बजे ही चल दिया. साढ़े चार-पांच बजे तक पहुँच गया हूँगा. नुमाईश ठीक से शुरू भी नहीं हुयी थी. लोग धीरे धीरे अपनी दूकाने खोल रहे थे. नुमाईश में डांस पार्टियां भी थी जोकि पांच रूपये में पांच गानों पर डांस का प्रोग्राम पेश करती थी. ये लोग लोगो को रिझाने के लिए पहले गाने में आम लोगो के लिए पर्दा खोल देते थे ताकि लोग पूरा प्रोग्राम देखने के लिए टिकट खरीदे. इन डांस पार्टियों के लगभग सभी गाने मादक, उत्तेजक और किसी हद तक अश्लील होते थे. उस जमाने में इन्हें देखना बुरा समझा जाता था. मैंने सभी डांस कम्पनियों के फ्री वाले गाने देखे क्योंकि पूरा प्रोग्राम देखने के पैसे तो थे नहीं और सात बजे से सर्कस देखना था. एक ओर मौत का कुआं था जिसमे एक व्यक्ति मोटर साईकिल चलता था. सब लोग लकड़ी के मौत के कुएं के चारो तरफ ऊपर चढ़ कर खेल देखते थे. कुछ जादूगरों के पांडाल भी थे जो कि लगभग एक घंटे का मैजिक शो दिखाते थे. ये लोग भी लास्ट की, आदमी का सर काटने वाली, ट्रिक दिखाते वक़्त पर्दा खोल देते थे ताकि लोग आकर्षित हो कर अगले शो का टिकट खरीदे. सभी तरह के झूले थे लेकिन उस वक़्त ये झूले बिजली से नहीं चलते थे बल्कि लोग ही इन्हें घुमाते थे. बाकी झूलो का तो ठीक है लेकिन जो सबसे ऊँचा गोल चक्कर वाला झूला (आज के टाइम का फेरीस व्हील) होता था उसमे थोडा सा धक्का देकर चलाने के बाद दो आदमी चलते हुए झूले में चढते थे और बड़ी फुर्ती से कलाबाजिया खाते हुए झूले के बीच में आ जाते थे. ये लोग अपने पैरो से झूले की हर एक नए आने वाली पालकी की रॉड को दबाते थे और झूला और तेजी से चलता था. काफी देर तक झूले को स्पीड देने के बाद ये लोग उसी तरह कलाबाजियां खाते हुए झूले से बाहर आ जाते थे. इस तरह झूले को चलता हुया देखना भी बहुत ही दिलचस्प होता था.
और कई तरह की प्रदर्शनियां थी जिसमे ना डूबने वाला पत्थर, थाली में रखा कटा हुया, लेकिन मुस्कुराता हुया, आदमी का सर, बिजली का झटका मारने वाला आदमी, बनमानुस के चेहरे वाले चार भाई. पूरी नुमाईश में एक तमाशा ऐसा भी था जो कि सब के लिए मुफ्त था. दरअसल इसे छुपाना संभव ही नहीं था. ये था एक आदमी का अपने पूरे शरीर पर आग लगा कर, सौ फीट ऊँची सीढी से नीचे पानी के तालाब में कूदना. ऐसा ही तमाशा आपने फिल्म ‘हाथी मेरे साथी’ में राजेश खन्ना को करते हुए देखा होगा. बाद में सरकार ने इस तमाशे पर प्रतिबन्ध लगा दिया था. क्योंकि इसकी उंचाई की वजह से इस तमाशे को छुपाना संभव नहीं था इसलिए ये तमाशा रात को एक-डेढ़ बजे होता था और इसके बाद नुमाईश उस दिन के लिए ख़त्म हो जाती थी. क्योंकि लोग इस तमाशे को देखने के लिए अंत तक रुके रहते थे तो नुमाईश की सभी दुकानों को फायदा होता था तो मेरे विचार से इस तमाशे के लिए वो सब लोग पैसा इकट्ठा देते होंगे क्योंकि इस तमाशे का कोई टिकट नहीं था.
मैं अलग अलग दुकानों पर घूमता रहा, देखता रहा और किस्मत का मारा मेले के जुए वाले हिस्से में पहुँच गया. बहुत सारी तरह की जुए की दुकाने थी. तीन स्टील के ग्लासों के नीचे एक गोली तो घुमाना. तीन कैरम के स्ट्राईकर्स में से लाल वाले को पकड़ना. घूमते हुए चक्के के किसी नम्बर पर पैसे लगाना. एक और खेल था जिसमे एक बड़े से बोर्ड पर लिखे हुए अलग अलग नम्बरों पर पैसे लगाने होते थे, बाल फेंकी जाती थी और जिस भी नम्बर पर आती थी उसके दुगने पैसे वापस और बाकी सब के जब्त. मैं बहुत देर तक इस खेल को देखता रहा. हर बार किसी ना किसी के पैसे दुगने हो रहे थे और बाकी सब के समाप्त. दिल और दिमाग में एक अंतर्द्वंद चल रहा था. एक कहता था
“जुआ खेलना बुरी बात है नहीं खेलना चाहिए”
दूसरा कहता था कि
“सोच कर तो देख अगर दो रूपये के चार रूपये हो गए तो कितना मजा आएगा. फिर तो जादूगर का शो भी और खाना-पीना भी”
“लेकिन भाई अगर ये भी चले गए तो क्या बचेगा?”
“अरे बेवकूफ बिना रिस्क लिए भी जीवन में कुछ मिलता है क्या?”
काफी देर की जद्दोजहद के बाद लालच ने विवेक पर विजय पायी और मैंने अपने सारे भगवानो को स्मरण करते हुए अपनी समस्त पूंजी, दो रूपये, आठ नम्बर पर लगा दिए लगा दिए
अगले ही क्षण जैसे पूरा ब्रह्माण्ड मेरी आँखों के सामने घूम गया और जैसा अधिकाँश लोगो के साथ होता है मेरे साथ भी वैसा ही हुआ. बाल जिस नम्बर पे रुकी थी वो आठ नम्बर नहीं था खेल वाले ने एक छडी से बोर्ड के उपर बिखरे सारे पैसे इकट्ठे कर लिए.
मेरे शरीर की सारी शक्ति जैसे किसी ने निचोड़ ली थी. बुद्धि ने जैसा काम करना बन्द कर दिया था. पूरा का पूरा मेला अब भी उसी तरह जवान था और अपने शबाब पर था. लोग खा रहे थे, खेल रहे थे, हँस रहे थे, लेकिन मेरी तो पूरी की पूरी दुनिया लुट चुकी थी. इंग्लिश की एक कहावत है कि a bird in hand is worth two in bush. मैंने झाडी में बैठी दो चिड़ियाओं के लालच में अपने हाथ की चिड़िया उड़ा दी थी. उस दुःख, पीड़ा, संत्रास, पश्चाताप, निराशा, को शायद ही कभी शब्दों में पिरोया जा सके.
काश समय १० मिनट पीछे घूम जाये.
काश मैंने जुए में पैसे ना लगाये होते.
काश ये खेल वाला मुझे बच्चा समझ कर मेरे दो रूपये वापस कर दे.
काश पापाजी पीछे से मेरे कंधे पर हाथ रख कर कहें कोई बात नहीं बेटा ले ये दो रूपये और देख ले सर्कस.
काश मेरा कोई अमीर दोस्त मिल जाए वो मेरी मदद कर दे
लेकिन ऐसा कुछ ना ही होना था और ना ही हुया. दो रुपये गंवाने से भी ज्यादा बड़ा दुःख ये था कि मुझे खाली जेब और खाली पेट रात ग्यारह बजे तक इस मेले में घूमना था क्योंकि सर्कस ख़त्म होने के समय से पहले तो घर जाया नहीं जा सकता था. हिंदी की भी एक कहावत है “पैसा नहीं हो पास, तो मेला लगे उदास”.
मेरी दुनिया भी ईस्टमेन कलर से ब्लैक एंड व्हाईट हो चुकी थी. अब मेले की हर चीज जैसे मेरा मजाक उड़ा रही थी. मेरा मन कर रहा था की किसी तरह ये धरती फट जाए और मैं उसमे समा जाऊँ. सारी हिम्मत जुटाने के बाद भी मैं इस पीड़ा को एक-डेढ़ घंटे से ज्यादा नहीं झेल पाया और घर की और वापस चल दिया. पूरे रास्ते मैं डायलोग याद करता जा रहा था:
मैं क्या कोई पागल हूँ जो तीन घंटे बेकार की कलाबाजिया देखने के लिए अपने दो रूपये बर्बाद कर देता. मैंने जाते ही सबसे पहले बीस पैसे वाले मलाई वाली कुल्फी खाई, फिर चाट, फिर मौत के कुए का तमाशा देखा और अंत में भर पेट छोले कुलचे वगैरहा वगैरहा. पूरा ध्यान इस बात पे था कि दो रूपये का पूरा हिसाब ठीक से बैठना चाहिए.
इस तरह मुझे उस रात भूखा भी सोना पड़ा.
इसके बाद मैंने कभी भी अपनी मर्जी से जुआ नहीं खेला लेकिन फिर भी इस घटना के दस साल बाद कैसे मुझे मुंबई की जुहू चौपाटी पर जबरदस्ती लूटा गया ये किस्सा फिर कभी.

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