इंतजार करने की आदत इतनी पङ चुकी थी की कभी - कभार इंतजार भी मुझे टोक देता था , फिर भी मै उसको मनाता की नहीँ कुछ देर और सही , कर लेते है , हो सकता है उसने बाहिरी मुद्रिका पकङ ली हो , दिल्ली मेँ इशक किया है तो इतना वेटिँग टाइम लेकर तो चलना ही पङेगा , है कि नहीं

रोहिणी से वैसे तो मेट्रो भी चलती थी , लेकिन उसको बस मेँ सफर करना ही पसंद था , बोलती थी उसको बस की खुश्बू बहुत पसंद है , थोङा अजीब था पर सच भी था ॥

मेट्रो के आ जाने से ट्रैफिक भले कम हो गया हो लेकिन सफर की न दूरी कम हुयी और न वक्त

घङी जहाँ से चली थी फिर वो वापस यू टर्न लेकर वापस आ रही थी , लेकिन आशावादी चरित्र ने फिर भी हार नहीं मानी ॥

अब तो ये रोज का हो गया था , रोज उसके स्विच्ड आँफ नंबर पर फ़ोन करने की आदत सी हो गयी थी , आशा थी , कभी न कभी वो लङकी ,जो नंबर आँफ होने की सूचना हर बार अपने चिर - परिचित अँदाज मेँ देती थी , कभी उसका नया नँबर भी बता देगी ,मगर ऐसा हुआ ही नहीं कभी , यही फर्क है कंप्यूटर और इंसान में ... कंप्यूटर इमोशंस नहीं समझता |

फिर भी बस एक बार उससे बात हो जाये तो ऐसा लगेगा जैसे आत्म मन विरह से संपूर्ण मुक्त हो चूका है , न सफाई माँगूगा और न कुछ पूछूँगा , बस ये बोलूँगा की , पिछले तीन महीने से ओम बुक शाँप के बाहर तुम्हारा रोज इंतजार करता हूँ , तुम्हारी बस आज तक यहाँ नहीं पहुँची ॥

अगली बार कभी आना तो मेरी लिखी किताब तुमको यहाँ मिल जाएगी , एक प्रति मैने पाँडेय जी को अलग से दे दी है , क्या करुँ आशावादी जो ठहरा॥ किताब बेशक कागज की है लेकिन हाँ कोशिश करोगी तो तुमको उसमेँ में एक आइना भी दिख जाएगा , हो सके तो झाँक लेना एक बार , मेरा इंतजार तब शायद खतम हो जाए |

अच्छा हुआ हम बुक शॉप के बाहर मिला करते थे , बगल के ठेके पे मिलते तो शायद मैं भी स्टीरियोटाइप प्रेमियों में गिना जाता | शराब के बदले मैंने कलम उठा ली है , कभी ज्यादा गुस्सा आता है तो स्याही पी जाता हूँ , तुम मानो या न मानो शराब से ज्यादा ये कड़वी है |

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Tags: Love, Metro, ROMANCE, Delhi

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