शबनम की बूँदे हैँ छुपी सिमटी पडी इक पुष्प पर,,
रात को चंदा ने उसको ज्योति देकर दिया सहारा,,
प्रभात के प्रथम उजाले ने किया मुखभेँट उससे ,,।।।
बूँद हैँ कुछ ठिठुरती , कुछ निखरती,,
आस मेँ बैठी हुई ,सूर्य उदय के
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कंपकंपाती आह ले कर सोचती
इंतजारी भी तो है बुरी बला,,
इतने पहर आकर के जब गुजर गये
इस पहर मेँ क्योँ है
इतनी बिलम्बता?
क्या चाह मिलनी है नही आसान योँ
या शब्र की घडी जल्दी कटती नही,,?।।
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बूँद कुछ अब खो गयी गहराई मेँ
मिलन को भूलकर चल पडी बिछुडन की और,,
आसूँओ से तरबर आँखो मेँ लगा दर्द कौँधने
सिसकियोँ की आह ने
फैला दी योँ वेदना
हर तरफ हलचल मची
कुछ शोर की,,
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ख्वाब को तोडा तभी एक किरण ने,,
चित्रकारी वो करने लगी बूँद पर,,
शबनम तभी चौँक कर सहम सी गयी
फूल ने अब खोल दी हैँ पंखुडियाँ
अब शबनम ने भी कुछ हिम्मत भरी
छोड दी शर्मोह्या उसने तभी,,
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बूँद प्रथम किरण के आँलिगन मेँ मस्त हो कर खो गयी
वो ठिठुरती रात की कह कर व्यथा
सूर्य की हर किरण मेँ वो रम गयी,,
शब्र की जीत का ये सिलसिला
सूष्टि का वरदान बनकर रह गया
मधुरवादिनी