अब तुम फ़ोन नहीं उठाओगी तो मैं कहानियाँ ही लिखूंगा न !
बालकनी में जब फुरसत के पल में बैठता हूँ तो तुम्हारे होने की ऐहसास दिमाग में आने लगता है | मई के भीषण गर्मी के शाम में बालकनी में बैठते ही ठंढी हवा की झोकें की तरह तू याद आती है और बैचैनी से मैं फ़ोन में तुझे दूंढने लगता हूँ |

फुरसत के इस छन में तुमसे बात करने को दिल मचलता है | पुरे दिन का दौर भाग और सारा थकान इस एहसास में ख़त्म हो जाया करता है कि अब तुम्से बात होगी | लेकिन ठंढे हवा के झोकें की तरह तुम भी फ़ोन के रिंग में ही समाई रह जाती हो | बगल के झोपड़ी में निकल पुरानी हिंदी गीत की सुरीली आवाज़ दिमाग में गूंजती रहती हैं, और मैं बालकनी में बैठ दूर दूर तक तुम्हें ही दुढता रहता हूँ |

नीचे से कुछ बंगालियों की बंगाली कानों में टकराती है, बच्चो के कोलाहल हवाओं में संगीत बन उभरती है तो फोन के रिंग के भातीं कानो को तुम्हारी आहट महसूस होती है | आसमान भी तारा विहीन हो भावनाओं को भड़काते रहता है, लेकिन चाँद की तरह तुम्हारी ऐहसास दिमाग को शीतल बनाये रखती है | अकेला बैठा इस बालकनी में हवाओं से मुठभेड़ करता रहता हूँ और हर फोन की बजती घंटी से तुम्हें बुलाता रहता हूँ |

Tags: Short Story

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