जंजीरे अब पैरों में नहीं
शरीर पर लिपटी सी लगती हैं ,
इन "बंदिशों" की जकड़न
अब कुछ और मजबूत सी लगती है ।।

और यह - "बावरा सा" मन मेरा
उड़ान तो बड़ी ही ऊँची ऊँची भरता है ,
और फिर -- रोता भी है बड़े जोरों से ,
"अरमानो की पोटलियों" को जब जोरों से जमीन पर पटका जाता है । ।

सदियों से मानो , बस इसी आरज़ू में है कि
कि कोई दिन ऐसा भी आएगा
जब उड़ चलेगी "ढक्कनिया"
अपनी "सपनों की गठरी" को लेकर
इस अनंत आकाश के उस पार .........

टूट कर बिख़र जाएंगी
ये "कमज़ोर" जंजीरें उस दिन
और
तब चाहकर भी कोई उसे रोक ना पायेगा ॥

****** अर्थ से परीपूर्ण इस दुनिया में अपने जीवन का अर्थ (उद्देश्य ) तलाशतें हुए

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