महीनों बाद बालकनी में बैठने का मौका मिला था | शाम के ढलान के वक्त का काला घना बादल और दूर से आती ठंडी हवाओं की खुसबु, बालकनी की रहय्स्मयी ऊर्जा और पलास्टिक के कुर्सी पर टेढ़ा-मेढ़ा बैठ कर जीवन के कल्पनाओं में खोना, पता नहीं कब से इन्हीं लम्हों का इंतजार कर रहा था | बहुत दिनों बाद जीवन के उन अनछुए पहलुओं को फिर से समझने का मौक़ा मिला, तो कल्पना के दुनिया में जीवन के रहस्य हमारे हमसफ़र बन गएँ |

नीचे लॉन में अल्हर जवान लड़कियों की अठखेलियाँ बार–बार नजरों को भटकाने लगी | उनकी हँसी ठिठोली और जवानी का लड़कपन मन को गुदगुदाने लगा | कभी आँखों का मिलना, कभी यूँ ही उन्हें देखते रहना, कभी उनकी शर्म हया दिल को गुदगुदाने लगी | जवानी की खुबसूरती, आँखों की चमक उन पांचो सुन्दरियों की आपसी बातचीत और बार-बार उनकी बालकनी के तरफ उठती नजरें ने दिमाग के कोने-कोने को रोमांचित कर रख दिया | जब इन सुन्दरियों की हर अदा हमें भाने लगी तो हम भी इस पल को जीने के लिए लालायित होते गए | दिल की तरंग ऐहसास को जगाने लगी और यूँ लगने लगा की जीवन के इस जन्नत में भाग्यवानों को ही ऐसी खूबसूरती देखने का मौक़ा मिलता है |

इंटरनेट, फ़ोन, लेपटोप, मीटिंग, धरना, प्रदर्शन, भाषण के दुनिया से दूर अल्हर जवान लड़कियों से नज़रे मिलाना, उड़ती नजरों से उन्हें निहारना और आंखे मिलने के बाद उनकी चेहरे के शर्म हया को देखना, फिर हिम्मत का बढ़ता जाना और उनकी आपसी बातचीत में अपने आप को पाना स्वर्ग जैसा ऐहसास दिला रहा था | जिंदगी की गुढ़ रहस्य का आँखों ही आँखों में आदान प्रदान होना, बिन बोले आँखों की आपसी बातचीत और फिर झुकती पलकें और उसका गुमसुम हो जाना, फिर सहेलियों की चटखदार मजाक और हर आँखों का एक साथ बालकनी के तरफ उठना बहुत ही रोमांचकारी था | शब्द नहीं थे इसे बयां करने के लिए | फिर उस मदमस्त मीठी अल्हर लड़कपन और सहेलियों के नोकझोक भरी शरारत से उसके मन का उचाट हवा में भर चुकी अनकही अनसुनी रोमांस को बताने के लिए काफी था | बालकनी से उसका ये बदलता स्वरूप और और चेहरे की लाली का यथार्थ दिखना मदहोशी के आलम को लेकर आयी |

इस बेस्वाद हो चुके जीवन में रस घुलने की देर ही थी कि वो चुपचाप उठ नजरें झुका जाने लगी | हर कदम चुन-चुन कर रखती हुई, उड़ती नजरों से बालकनी के तरफ देखते, अपने दुपट्टे से चेहरे पर दिखती दर्द के भाव को छुपाते, डगमग क़दमों से मैं उसे जाते देखते रहा | हर कदम मानो उसकी खबसूरत गठीली शरीर को सहारा देते हुए उसे हमारे नजरों से दूर ले जाने को बेक़रार लगी | बालकनी की ठंडी हवा इन सब से बेखबर शरीर को छुते हुए निकलती रही, मैं भी अपने वर्तमान से कल्पना की दुनिया में फिर से खोने की कोशिश करने लगा, चाय का प्याला खत्म हो चुका था, नीचे बंगालियों की बैठक सज चुकी थी और उनकी न समझ में आने वाली बातचीत अब झेला नहीं जा रहा था | तो उसे जाते ही हमने भी बालकनी में अपने कागज कलम को विराम दे दिया | उस अनकही अनसुनी रोमांस के गुदगुदाने वाले एहसास को दिलों में समेटें हम फिर से अपने वर्तमान में लौट आयें | हाँ उसी माथापच्ची वाली दुनिया के रोमांस में |

फिर मिलेंगे बालकनी से !!!

Tags: True Story

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