वह जनसंगठन जनता के चंदा के पैसे से चलता, कार्यकर्ताओं को खाना,
पीना, रहना और कुछ जेब खर्च मिल जाया करता | कार्यकर्ता पूरा जान लगा कर काम करते, रात हो या दिन काम चलते रहता और जीवन एक बदलाव के चाहत में दीपक के लौ के भातीं जलती रहती | दिल दिमाग में हमेशा बदलाव, व्यवस्था परिवर्तन की बातें आती और कल्पनाओं में भी एक उमंग होता | फिर एक “ एनजीओ “ का प्रवेश होता है | बदलाव को एक नये क्लेबर में, चमक-दमक और कुछ पैसों की खनक के साथ दिखाया जाता है, तथा जनसंगठन के कार्यकर्ताओं को विभिन्न टेकनिकल मदद मुहैया कराने की बात भी होती है |

फिर एक नया बदलाव आता है | व्यवस्था में बदलाव की बात खत्म हो जाती है, तथा जनसंगठन की बैठको में कार्यकर्ताओं का सुर बदलने लगता है | “ अब पैसे की खनक किसे अच्छा नहीं लगता “ | तो जनसंगठन के नेतृत्वकर्ता की बातो पर प्रश्न उठाना शुरू हो जाता है | खाली पेट - खाली जेब की दुहाईयां दी जाने लगती है | फिर एक दिन बदलाव की कल्पना चंद पैसों के नीलामी चढ़ जाती है | जी हाँ कुछ नहीं मिलाता, यहाँ चंद पैसों के लिये बदलाव बाजार में बिक जाती है, सपना सदा के लिये सपनों के दुनिया में ही रह जाते हैं | चंद पैसों का लोभ जो मिलता भी नहीं, वो बदलाव के सपनो को ध्वस्त कर रख देती है |

हम हर बार मात खाते हैं हारते हैं चंद पैसों से | लेकिन दिमागी अस्पष्टा है, कि पैसों से बदलाव नहीं लाया जा सकता तो मुस्कराते हुए अपनी विफलता के मय्यत को कंधा देते निकल जातें हैं फिर से एक नई मंजिल को तलाशने | फिर से हारने उन चंद पैसों से, लेकिन दिल में बादलाव् की अरमान चिनगारियो की भांति जलाये रखते हैं | हम हारेंगे, हारते रहेंगे लेकिन चंद पैसों का खेल नहीं करेगें, क्योंकि हमें पता है अगर पैसे से ही बदलाव आता तो आज देश में 60 साल बाद भी गरीबी हटाने के नाम पर चुनाव नहीं जीती जाती | हम बदल गये होते |

Tags: Politics

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