देशप्रेम या देशभक्ति के गुंधुन मे कंही हम इन शब्दों की महत्ता को नहीं खो रहे । कभी सोचता हूँ कहीं ऐसा तो नहीं इस नहीं पीढ़ी की आर मे हमारे पौराणिक शब्द भी मनुष्य की भांति अपने  असलियत से दूर भाग रहे । वैसे बहुत कठिन होता है पौराणिक सिधान्तो पे चलना ऐसा मेरा अपना मनाना है । कभी कभी स्तभ्ध रहा जाता हूँ क्या ऐसा तो नहीं इन मॉडर्नाइजेशन के दौर हम उन मौलिक तःत्यों को ही परिवर्ती कर दे जिसे जानने और समझने के लिए हमारे पूर्वजो ने कई सहस्त्र साल लगाये । कभी कभी अपने युवा साथियों की बाते और तर्क से लगता है सच में हम बहुत दूर आ चुके हैं ।क्या इतना आसान है इन शब्दों को उनके जड़त्व से जोड़ना , और कभी सोचता हूँ नहीं सैयद ये इन शब्दों की बिडंबना है जो ये इतने आसान नहीं । या इतने adaptive नहीं , कभी पढ़ा था बचपन में 'समय के साथ अपने आप को बदलना चाहिए 'सैयद वो सिद्धान्त इन शब्दों के ऊपर भी लागू होता है । लकिन कभी कभी लगता है वक्त के साथ सच में शब्दों को बदलना हमारे लिए कंही अभिशाप तो नहीं ,इस गुंधुन में बैठा हूँ चलिये जरा इन शब्द की बिंदम्बना को देखते है। ज्यादा पौराणिक बातो को छोड़ते है। शब्द की अस्थिरता कुछ वर्ष पहले से ही देखने की कोशिश करते हैं । थोड़ा अजीब है कि कुछ लोग सोचते हैं  ये राष्ट्रबाद  तो हमारी संस्कृति की दें है ,अगर ऐसा है तो क्या सच में हम अपनी संस्कृति को जानते है । छोड़िये इन सवालो का जबाब तनिक सोचनीय है चलिये जरा गौर करे देशभक्त और देशप्रेमियों के बदलते सरूप निहारते हैं । मेरा मानना है कि शायद   द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद राष्ट्रवाद और बहुसंख्यावादी सिद्धांतों को लेकर पूरी दुनिया में एक हिचकिचाहट थी, क्योंकि जर्मनी ने दूसरा विश्वयुद्ध खोए हुए राष्ट्रगौरव की पुनःप्राप्ति के लिए छेड़ा था और उसकी कीमत पूरी दुनिया को चुकानी पड़ी थी। वर्ष 2008 की आर्थिक मंदी के बाद जब भूमंडलीकरण की आर्थिक नींव हिली तब आर्थिक निराशा के चलते राष्ट्रवाद ने उग्रता से विश्वस्तर पर राजनीतिक वापसी की है। इसकी झलक हमें अमेरिका के डोनाल्ड ट्रम्प से लेकर ग्रीस के गोल्डन डौन पार्टी के उदय में मिलती है। हमारा देश भी इससे अछूता नहीं रहा है। विपक्षियों को देशद्रोही कहा जाना इसका प्रतीक है।

इसी कड़ी में माननीय सर्वोच्च्य न्यायालय के अंतरिम फैसले के अनुसार अब हर सिनेमा हॉल में किसी भी फिल्म के शुरू होने से पहले राष्ट्रगान गाया जाना अनिवार्य है। इस फैसले के तहत राष्ट्रगान हमारी राष्ट्रीयता और ‘संवैधानिक देशभक्ति’ का एक ‘पवित्र’ प्रतीक है और इसका सम्मान होना अनिवार्य है। राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान होना चाहिए इसमें कोई दो राय नहीं हैं। किंतु पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी जैसे प्रख्यात कानूनविद इस फैसले का विरोध कर रहे हैं। उनका मत है कि इस फैसले में कई कमियां हैं: जैसे कि इस फैसले को लागू कैसे कराया जाएगा; और सबसे अहम – क्या मात्र राष्ट्रगान की धुन बजने पर खड़े हो जाने से देशभक्ति साबित हो जाती है? क्या ईमानदारी से अपना जीवन जीना राष्ट्रवाद नहीं है?

शायद हमें देशभक्ति और देशप्रेम में फर्क करने की जरूरत है। भक्ति में तर्क और असहमति की कोई जगह नहीं होती, क्योंकि भक्ति भगवान की जाती है, जबकि देशप्रेम में देश की परिकल्पना आलौकिक नहीं बल्कि तार्किक होती है; जिसे हम और आप मिलकर गढ़ते हैं। भक्ति में अनिवार्यता होती है प्रेम में नहीं। शायद इसीलिए खुद राष्ट्रगान के रचनाकार महाकवि रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था, ‘मैं अपने देश की सेवा करने को तैयार हूं… पर उसे पूजने को नहीं। देश को पूजना- अलौकिक बना देना – देश को अभिशप्त करने जैसा है!’ हमें टैगोर का कथन गंभीरता से लेना चाहिए।

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