वो जो गली के आखिर में एक टूटा मकान है,
जो उजड़ा होते हुए भी आलिशान है,
जहा अंधियारे के बीच एक शमा अटल है,
जो वीरानियाँ लिए हुए भी बागबान है |1|
 

उसमे एक बूढी दादी रहती हैं,
हर आते-जाते को अपना कहती हैं,
रोज सवेरे वही फटा चादर सीती हैं,
हर कतरा अपना, जो बन पड़े, दुसरो को देती हैं |2|
 

चिड़ियों की चहचाहट को भोर कहती हैं,
पर लोगों की बातों को शोर कहती हैं,
कहती है ये सुरज मेरे कलेजे को ठंडक पहुंचाता है,
इन तेज हवाओं को कमजोर कहती हैं |3|

चेहरे पर एक अजब सी मुस्कान है,
कपकपाते हाथ मानो सम्हाले हुए सारा आसमान हैं,
देखती है हर एक को उम्मीदों भरी नज़र से,
पर उनकी आँखे चमकते हुए भी वीरान है |4|
 

अब वो जो गली के आखिरी में एक टूटा मकान था,
अब एक मकान होते हुए भी शमशान है ||

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