नवरात्री चल रहा है, पूरा देश में डांडिया और गरबा का धूम मचा हुआ है. मिथिला के बहनें भी रेडी फॉर डांडिया सेलिब्रेशन और गरबा सलिब्रेसन का फोटो सोशल मीडिया पर डाल रही है. उन्हें हजारों की संख्या में लाइक और कमेंट मिल रहा है.  लेकिन मिथिला संस्कृति का हिस्सा लोक निर्त्य झिझिया विलुप्त हो चूका है. हमारे पीढ़ी के लोगो में बहुत को इस कला का नाम भी नहीं पता है. 

 

गुजरात और महाराष्ट्र में डांडिया लोकप्रियता सातवें आसमान पर है. वो अपने क्षेत्र से आगे बहुत आगे निकलते हुए पुरे देश क्या पुरे विश्व में अपना जगह बना चुकी है. लेकिन हमारी संस्कृति की अमूल्य धरोहर अपनों के ही द्वरा अपेक्षित होकर, उनके डांडिया के डंडे की चोट खा-खा कर मृतप्रायअवस्था में कराह रही है. मगर इनकी सुद्ध लेने वाला कोई नहीं है.

मुझे याद है मेरे बचपन का वो दिन जब हमारी खुद की बहन समेत पुरे मुहल्ले की लड़कियां नवरात्री नजदीक आते ही मिट्टी घड़े का जुगाड़ करती थी फिर उसमे भूसा भर के छोटे-छोटे छिद्र करके झिझिया तैयार करने में लग जाती थी. नवरात्र शुरू होते ही हर शाम लड़कियों की झुण्ड माथे झिझिया रखे गीत गाते निर्त्य करते नज़र आती थी. क्या खुबसूरत नज़ारा होता था? मन आज भी उस नज़ारे को देखने को व्याकुल है.

 

इसके लिए हम डांडिया या गरबा को दोष नहीं दे सकते हैं. इसके लिए दोषी हैं हम, हमारी आयातित सोंच. हम मैथिल कुंठित हो चुके हैं या कर दिए गए हैं. हम अपने ही संस्कृति, भाषा, खान-पान, पहनावा को हे दृष्टि से देखते हैं. हमें अपनी इन चींजों में गवांरपन नज़र आता है. हे मैथिल अगर हम अब भी सचेत न हुए तो याद रखना मिथला संस्कृति/मैथिली संस्कृति का इतिहास भी मिट जाएगा.

 

अमित सिंह

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