आज मेरे भाग्य पर दुर्भाग्य भी शर्मा गया,
जो कुछ था उसमे लिखा, देखकर सकुचा गया |
और क्या थी मुझमे कमी जो मुझसे वो उकता गया, 
इंसान हूँ पत्थर नहीं, जो खुदा मुझे यूँ ठुकरा गया |

कर्म ही होता है सबकुछ, सुना था मैंने कभी,
पर शायद ये मर्म ही बनकर रह गया |
सदियों से सुना है ये, की वो सबकी सुनता है यूँ,
बात तो तब हो की, पुकार पहुंचे उसके कानों तक यूँ,
की मांगने से पहले ही, करदे पूरी मुरादे सुरु |

दुर्भाग्य फिर से हंसकर, यूँ मुस्का गया मुझपर,
इससे अच्छा तो मै ही था, जो मै तेरा दुर्भाग्य था,
कम से कम तेरे ऐसे भाग्य से, जिससे तु यूँ गुमनाम सा था |

कर्म की महता तो दिल से यूँ जाती रही,
कर्म ही पूजा है की लौ बुझती जा रही ||

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