आँखें नॅम थी कोई ख्वाब ना था बाकी,
किनारे पे बैठे मैं खुद से बतलाता,
इक पल यादों की ढलती धूप को से कता, मुस्कराता
दूसरे पल सागर में तन्हा नाव सा झिलमिलाता,
उस शाम के आगोश मुझे खोने लगा था.

हंसते खिलखिलाते चेहरे,
कुछ दिल के किस्से गाते, कुछ कैमरे के पर्दे में चेह्चहाते,
सब मुझे बीते पलो के कठपुतलियों के नाटक से लग रहे थे

कानो में कुछ सुनाई ना पड़ता था,
बस एक गहरा सन्नाटा ..
जैसे कोई तूफान की शहनाई से पहले कोई दुन्दुभी बजा रहा हो ..

सब यादों को टटोलता,
मैं सागर के किनारे रेत के कुन्बे में कुछ ढूंढ़ने लगा था
शायद यहीं कहीं दबाई थी वो सीपिया बचपन में ..

कल तक ये सागर जो मेरे पैरों को चूमने को बेताब रहा करता था,
आज शायद ये भी रूठ गया है मुझसे ..

बावलो सा बदहवास सूखी रेत को टटोलता देख मुझे, वो सूरज आ कर मुझे छेड़ने लगा,
कभी मेरी आंखों से आँखमिचौनी खेलता,
कभी मेरी परछाई को तोड़ता मरोड़ता

कब तक मुझसे यूं लड़ता?
आखिर मैने उसे हरा ही दिया,
नॅम अंखों से बेहते आन्सुओ के सागर में एक शाम उसे डुबा
ही दिया

पर ना जाने अब क्यूं मेरी परछाई भी मुझसे घबराती है,
सूरज की आड़ में जो कभी खेलती थी मेरे साथ
आज वो भी नज़र नही आती है

कुछ थक हार कर फिर मैं उस कोने में जा बैठा जहा कुछ सन्नाटा सा था,
ना जाने क्यूँ मुझे वो अपने दिल की याद दिला जा रहा था

Tags: Poetry

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