जिन्दगी के रूबरू चलते हुए
फलसफे का मेरी वो आज सबब दे गए,
हकीकत में और उलझती गयी वो गुफ्तगू
और हम सुलझाने की जद्दोजहद करते रह गए,
क्षीन्न भीन्न हुआ हृदय कुछ इस तरह
बिखरा पड़ा था वो फर्श पर
और हम बस टुकड़े खुदी के समेटते रह गए,
जिम्मेदारी और बेचारगी के बीच कुछ फंसे इस कदर
की हम अपनों की दुनिया से बेगाने हो गए,
अपनी आंखों में कुछ खूबसूरत वहम जो भरे थे
एक ही पल समझ आया कि क्या नादानी कर गए,
शायद वो सच ही था जो बिन शब्दों के ही बेगाना कह गए
नादां तो हम ही थे जो जहाँ को अपना बोल गए,
***** जितेन्द्र सिंह *****

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