कोई चाँद नहीं मैं,
जो जीने लिए रौशनी भी
सूरज से उधार मांगू.
फिर सोचा इतना बुरा भी नहीं,
जितना सोच लिया मैंने अपनी कविता में.

सूरज से उधार लेता है ज़रूर
पर पास खुद रखता नहीं
खर्च कर देता है एक एक पाई
चांदनी की प्यासी मरु भूमि पर
डूबा लेता है एक एक रोम अपना
सूरज के दिए हुए कर्जे में
और लुटा देता है फिर वो दौलत
जब रात को जुगनू भी रौशनी को तरसते हैं.

कहार बन के पानी धोता है
पूरनमासी के आकाश का राजा
सूरज के यहाँ हर अमावस की रात को
आखिर लिया हुआ क़र्ज़ वापिस भी तो चुकाना है.

पूनम की निशा में बर्फ सा सफ़ेद चाँद
और प्रियतमा के हाथों को
अधरों से लगा वो कहते हैं,
'देखो आज चाँद भी
खूबसूरत है तुम्हारी तरह'
मुस्कुरा देता है चाँद प्रेम के आलिंगन में
लिपटी सुनहरी बातों पे
और सोचता है कि सच कहते हैं,
'हर खूबसूरती के लिये
एक कीमत चुकानी पड़ती है.'



चलते चलते चाँद से :

चन्द्र आप महान है
निस्स्वार्थ सेवा से
चाह कर भी आप सा
बन कभी न पाऊंगा
जानता हूँ शायद अब
क्यों मुस्कुरा देता है चाँद
पूनम की हर रात को.

Tags: Fiction

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