दुआ किसीकी भी ख़िदमतगुज़ार होती नहीं,
किनारे बैठ के नद्दी तो पार होती नहीं !

ये मोजिज़ा तो हमारे ही बस में है प्यारे,
हवा दिये की कभी पहरेदार होती नहीं !

यहां पे थोड़ी बहुत छूट लेना पड़ती है,
शराफ़तों से बुराई शिकार होती नहीं !

अंधेरा साज़िशें करता है रात दिन लेकिन,
किसी तरह भी उजाले की हार होती नहीं !

उफूक उठा के परों पर उड़ान भरते हैं,
हमारे जैसे परिन्दे की डार होती नहीं !

नये ख़यालों को चुन-चुन के नज़्म करते हैं,
ग़ज़ल हमारी कभी शर्मसार होती नहीं !

मुखौटे चढ़ते हैं हमदर्दियों के चक्कर में,
उदासी ग़म की इश्तहार होती नहीं !!

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