"दादी कोई कहानी सुनओ ना, मुझे नींद नही आ रही "
ये था बचपन का मैं, या शायद हर किसी का बचपन ऐसा ही था. किसी के क़िस्सो में दादी की कहानियाँ हैं तो किसी की यादों में नानी की. बचपन के दिन कुछ अलग ही थे. कभी माँ की गोद में आके सो जाना. कभी नानी के क़िस्सों में खो जाना. गर्मियों की छुट्टियाँ हो तो रसोई का काम निपटा भर के आई थकी-हारी नानी को तंग करना की कहानी सुनओ, नींद जो नही आ रही. कहानियाँ कभी नयी ना होती थी पूरी तरह.
हमेशा वही एक राजा वही रानी. बदलता तो बस जगह का नाम और एक राक्षस जो कभी जंगलों में बस्ता तो कभी शैतानी जिन्न बन कर अपने जादू से डराता. इतनी ही बार सुन लेने के बाद भी ना जाने ये नानियाँ, दादियाँ कहाँ से हर बार एक नयी कहानी ले ही आती. कहानियाँ, जो कभी पूरी सुनी ही नही मैने. कहीं किसी पन्ने पे मैं सो जाता पर कभी ऐसा ना लगा की वो कहानी पूरी ना हुई. सपनों में, तो कभी दादी की आधी अधूरी , धुंधली सी आवाज़ कानों में पड़ती ही रहती.
वो जादू भरे हाथ जिनसे वो मेरे बालों को सहलाती रहती. इन कहानियों में एक बात ज़रूर थी जो मुझे हमेशा परेशान करती थी. राजा क्यूँ हर बार रानी को जीत ले जाता है. कभी शैतान को जीतते नही देखा.

"अब तुम बड़े हो गये हो, ये दुनिया है, असल दुनिया. दादी नानी के किस्से नहीं, यहाँ हर तरह के लोग मिलेंगे तुम्हे...."
कुछ बड़ा हुआ तो वो दादी की गोद की जगह अब्बा की फटकार ने ले ली. और उनकी कहानियों की जगह अब्बा के दुनिया की सच्चाई दिखाने वाले भाषण ने. उम्र के साथ ये सच्चाई सीखने को मजबूर कर देते हैं सब. पर मैं ना जाने क्यूँ बढ़ना ही ना चाहता था. दादी के क़िस्से कहानियों का कंबल लपेटे जिंदगी के माकूल से लगने वाले सर्द दिनों में चले जा रहा था. मुझे किसका डर? मैं तो राजा था. अम्मी का राजा बेटा. दादी की आँखों का तारा.

जो कहानियाँ कभी सुना करता था. अब वही पढ़ने लगा. लेखकों की किताब मे, तो कभी फिल्मों के ज़रिए. एक नायक , एक नायिका थोड़ी मुश्किलें, एक शैतान और आख़िर में वही जीत की खुशियाँ. ज़िंदगी तो बदली थी ही नही जैसे एक पल को भी. ना जाने अब्बा कौन सी सच्चाई दिखाते रहते मुझे जब भी घर जाता मैं.

यूँ ही जिंदगी के रास्तों मे चलते चलते मुझे एक दिन हीर मिली. कुछ दिन साथ रही और फिर चली गयी अपने रास्तें. उस बीच क्या हुआ क्यूँ हुआ ये बताना , ये समझना ज़रूरी नही था. बस ज़रूरी था तो इतना की जो भी हुआ वो ना दादी के क़िस्सों के जैसा था ना नानी की कहानियों जैसा. ना ही उन लेखकों की किताबों में उसका कोई जवाब था. बस जो था वो अब्बा की हिदायतें थी. अब्बा की बातें थी. दुनिया की सच्चाई थी.
एक सच्चाई जो सालों के मेरे यकीन को झकझोर के छोड़ गयी. एक बेलगाम घोड़े सी बन गयी जिंदगी, जो हर पहर अंधे कुएँ की और दौड़ती दिखने लगी थी.

"जो था, जिस पल था अच्छा था. अब ना वो पल हैं, ना वो नीयत है. और सच तो ये है की ये सब इश्क़, मोहब्बत क़िस्सों तक ही अच्छे हैं. ये फिल्में देखकर, और किताबें पढ़ कर तुम्हे लगने लगा है की इश्क़ में ऐसा होता है. हर किससे का अंत अच्छा हो ये ज़रूरी नही. बचपन नही है ये, बड़े हो तुम , इतना मुश्किल नही है आगे बढ़ जाना. कोशिश करो आसान लगने लगेगा कुछ समय में"

हीर के आखरी कुछ शब्द थे ये, जिनके सहारे वो चाहती थी की मैं आगे बढ़ जाउ.
उसका चले जाना मेरे लिए मुश्किल था, पर उससे ज़्यादा मुश्किल था वो यकीन खो देना खुद पर, उन क़िस्सों पर कहानियों पर जिनके सहारे में आज तक चलता रहा. एक रोज आप सोकर उठो और आप क्या देखतो हो की आप को कुछ याद नही. और जो भी याद है वो सब एक झूठ है. ऐसे हालात में जब आप खुदको शीशें में देखने लगते हो तो खुद को पहचान तो पाते हो पर हर पल खुद के वजूद पर शक़ सा होने लगता है. कुछ ऐसा ही मेरे साथ हुआ.

मेरे पास दो ही रास्तें थे, या तो मैं अब्बा की हिदयतें और हीर की बातों को मान एक नये सिरे से सब शुरू करू. नये यकीन, नयी यादें, नये किस्से, नया मैं और दादी के क़िस्सों और उनके प्यार भरे हाथों की सच्चाई भरी समझाइश को झूठ समझ लूँ.
या फिर हीर ग़लत थी.

कई रोज, जो सदियों से लगे उस वक़्त मुझे, यूँ हीं बिस्तर पर करवट बदलते निकालें. शायद कुछ हफ्ते या कुछ महीने. बस यूँ ही खुद को समझाने की कोशिश करता. और जो समझाने लगता भी तो मेरा दिल जैसे खुद ही मेरी खिल्ली उड़ाने लगता. अपने ही मन के हाथों होती बेइज़्ज़ती से बौखला कर एक दिन अपना सामान बाँधा और निकल पड़ा. एक साँस भर ही ली होगी पूरे सफ़र में बस. अगली साँस जब लेने लगा तब खुद को नानी की गोद में पाया.
वही प्यारे हाथ जब बालों को सहलाने लगे तो जैसे सारे जवाब अपने आप मिलने लगे थे मुझे. सोच के आया था नानी से क़िस्सों की सच्चाई बयान करने को कहूँगा. उनके हाथों से बरसते प्यार में मेरी भीगती पलकों ने सब पढ़ लिया था . कुछ दिन वहाँ रुका फिर वापिस लौट आया. कुछ बदला नही था मेरी जिंदगी में. बस किस यकीन पे यकीन करू ये समझ ज़रूर आ गया था.

कुछ अजब नही किया मैने. वही किया जो कोई भी करता. अपने क़िस्सों की पोटली को रद्दी के साथ बेचा नही मैने. उन्हे अपने सिरहने रख सपनों में तब भी जीता रहा.
अक्सर हीर की गलियों में जाकर खड़ा हो जाता . उसकी खिड़की को एकटक देखता रहता इस उम्मीद में की वो कभी तो आकर उस झरोखे से झाँकेगी और उसके खूबसूरत चेहरे पे एक मुस्कुराहट जो उसकी आँखों तक जाती थी मैं पढ़ पाऊँगा.
चिट्ठियाँ नही लिखी मैने उसे. एक लिखी थी बस. खाली छोड़ दी. बस लिखा तो इतना भर के
"जो दिल मे आए, जो सच लगे, जो मुनासिब लगे वो लिख लेना इसमे. कुछ ऐसा जो तुझे सुकून दे और जीने का हौसला"

महीनो बाद एक चिट्ठी आई वापिस. लिखा था तो बस एक सवाल.
"कब तक यूँ इंतेज़ार करते रहोगे? किसी दिन तो हार मान ही लोगे ना? सब मान लेते हैं. तुम्हे ज़रूरत है यही सवाल खुद से पूछने की. और जिस दिन जवाब मिल जाए तब शायद हम फिर से बात कर सके. "

आज आई थी वो मिलने.
वो आखरी चिट्ठी थी. उसके सवालों का जवाब देना बहुत चाहा मैने, पर कभी जवाब मिला ही नही. पर आज जब वो आई तो मेरे पास उसके हर सवाल का जवाब था या शायद मैं उसके हर सवाल का जवाब था.
दो पल बैठी, एक आँसू का क़तरा भर उसकी आँखों से लुडक के दुबक सा मुझ पे आ गिरा. कुछ फूल लाई थी मेरे लिए.

"जो सवाल था पूछा तुमने, तो आज मैं जवाब हूँ"

संगमरमर के टुकड़े पे गढ़े इन शब्दों को पढ़ कर वो उठी और चल दी. और मैं अपनी कब्र से उसके चेहरे पर उभर आए दर्द को देखता रहा.

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