होठों से स्मित अब रूठती नहीं,
आँखें शून्य को निहारती
कभी थकती नहीं
भावनाओं को बोझ समझ
पीठ फेर लेती हूँ मैं
तुम्हारे मन बहलाव का खेल
ज़िन्दगी को रुला गया

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