बीत गए हैं कितने ही दिन, बिन देखे ही तुमको
उठती है इक हूक हृदय में हर पल चुभता कुछ तो

कितनी सांझ सुहानी बीती, वीरानी सी
कितने भोर मनोरम बीते, एकाकी में
कितने तारे नभ पर उतरे बिन आभा के
रजनी बीती जलती साँसों की भाथी में

सुरभि, चन्द्रिका, रिमझिम, लगते अनजाने से मुझको
उठती है इक हूक हृदय में हर पल चुभता कुछ तो

पग आप मुझे उस पुष्प कुटी तक ले जाते
जहाँ सुरभि फूलों में साँसों की भरती थी
झंकृत होती वीणा लेकर हँसी तुम्हारी
शुभ्र ज्योत्सना में आभा मुख की ढलती थी

सहमे वे पल खड़े देखते कातरता से मुझको
उठती है इक हूक हृदय में हर पल चुभता कुछ तो

लांघ देहरी पलकों की वे सकुचाती सी
बाते आतीं, राग सुधा हिय में बरसातीं
लाज रक्तिमा मल देती थी मुख पर तेरे
कम्पित ऊँगली की कोरे जब छू जातीं थीं

तुम बिन मरघट सा लगता सब आ जाओ प्रिय अब तो
उठती है इक हूक हृदय में हर पल चुभता कुछ तो

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