लड़ रही है अकेली
कोने में पड़ी लालटेन
जैसे लड़ता हूँ हर रात
मैं अपने ही आप से

जल रही लौ उधर
सुलग रहा ह्रदय इधर
क्या कहें मेरे अधर
शब्द हैं कहाँ किधर

संसार का सिर्फ सौंदर्य
जो मेरे नैन देखते हैं
शीशे के पीछे जलता नृत्य देखते हैं
अग्नि-वायु का क्रीडा कृत्य देखते हैं

खिड़की का टूटा शीशा
और चौमास का भीगा झोंका
और वाह रे तेरी हिम्मत
तू मर मर जी जी उठती है

ये कैसी चाहत जलने की
बिन जले नहीं सो पाता हूँ
तिल तिल करके यूँ गलने की
बिन दर्द नहीं मुस्काता हूँ

जब बत्ती तक जल जाती है
और फफक कर रो देती है आखिरी लौ
बेचैन पड़ा दुसरे कोने में मैं
मिटटी के तेल के धुएं में सांस लेता हूँ.

Tags: Inner self

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