कह नहीं सकता कि
मुझमें
पहले तुम जन्मी थी या कविता ?

दादी के कहानियों की
श्वेत-वस्त्रा परी ने
उस सितारों भरी रात
आँगन में उतरकर
अपनी जादुई छड़ी से
मेरे हृदय-पट पर
पहले तुम्हें उकेरा था या कविता को ?

बालपन के
उस सावनी अपरान्ह में
मेघाच्छादित गगन तले
जब एड़ी के बल घूमते हुए
अपने अँगूठे से वृत्त खींच रहा था
तब मेरी अस्फुट चाह को सींचती
फुहारों के संग
पहले तुम बरसी थी
या कविता ?

तरुणाई की वासंती सुबह
उस नीम तले
प्रथम किरणों ने जब
पलकों का साँकल खड़खड़ाया था
तब उनींदी आँखों के स्वप्नों को
सर्वप्रथम स्वर देने वाली
तुम्हारी गुनगुनाहट थी
या डाल पर बैठी
गौरैयों के मुँह से झरती हुई कविता ?

जब चाँद और मेरा यौवन
सूनी रात में बतियाने लगे थे
और नदी किनारे खड़े
कास के झुरमुटों को चीरती
चंचल हवा ने लहरों को चूमा था
तब रोम रोम को स्पंदित करती
अन्तह की प्यास के साथ
जो पहले एकाकार हुई
वह तुम्हारी अँगड़ाई थी या कविता की लय ?

मैं नहीं जानता कि
मुझमें
पहले तुम जन्मी थी या कविता.
हाँ,
इतना अवश्य जानता हूँ कि
मेरी हर कविता में तुम मुखरित हुई,
तुम्हारे हर बोल से कविता प्रस्फुटित हुई,
तुम और कविता
हर पल, एक साथ
मुझमें धड़कती रही.

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