महाभारत में दुर्योधन ने जब पांडवों को वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास के उपरान्त इंद्रप्रस्थ लौटाने से इंकार कर दिया था तब युद्ध होना लगभग तय हो चूका था। दोनों तरफ के वीर योद्धा रणभूमि में जाने को आतुर थे। फिर भी स्वयं पितामह भीष्म, गुरु द्रौण और कृपाचार्य ने महाराज धृतराष्ट्र को लाख समझाने का प्रयास किया परन्तु पुत्र मोह में जकड़े धृतराष्ट्र ने उनकी एक ना सुनी। ऐसा नहीं कि वे युद्ध के परिणामों से अवगत ना थे, वे जानते थे कि युद्ध उपरान्त कुरु वंश का अंत निश्चित है फिर भी पुत्र मोह उन पर कुछ इस कदर हावी था कि वे मूक ही बने रहे। शान्ति का अंतिम प्रयास करने हेतु स्वयं जानकी नंदन भगवान् श्री कृष्ण दूत बन हस्तिनापुर पधारे। उन्होंने धृतराष्ट्र से कहा कि "हे महाराज इतिहास द्यूत क्रीड़ा में गांधार नरेश शकुनि के कपट के लिए उन्हें भले ही भूल जाए, पर वे आपको दोष देगा कि आपकी आँखों के सामने आपके अपने पांडवों को छला जाता रहा और आप दुर्योधन कि जीत का उत्सव मनाते रहे। महात्माओं और वीर योद्धाओं से भरी इस कुरु राजसभा के सामने आपकी पुत्रवधु द्रौपदी के चीर हरण जैसा घृणित कार्य होता रहा और आप सिर झुकाये मूक दर्शक बने बैठे रहे। सूत पुत्र कर्ण द्वारा भरी राजसभा में द्रौपदी को वैश्या कहे जाने पर भी आप कुछ ना बोले, इसके लिए भारतवर्ष का इतिहास आपको कदापि क्षमा नहीं करेगा महाराज, क्षमा नहीं करेगा।"
कुछ यही हाल आज कि राजनीति का भी है। ऐसा नहीं कि मनमोहन ना समझ है, वे नहीं जानते है कि किस तरह उनके सहयोगी भारत माँ के मान सम्मान के साथ खिलवाड़ कर रहे है उन्हें सब पता है, पर उन पर पार्टी मोह कुछ इस कदर हावी है कि वे मूक दर्शक बने बैठे है। पर उनकी यही विवशता उन्हें स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे कलंकित प्रधानमंत्री बना देगी।
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