बोल तुम्हारे, भाव तुम्हारा, मेरा तो बस स्पर्श मात्र है
प्रीत तुम्हारी, गीत तुम्हारा, मेरा तो बस हर्ष मात्र है

मैं प्यासा मरुथल, तुम शीतल जल की धारा सी बहती हो
प्रतिपल नेह-तरलता से कण कण मेरा सिंचित करती हो
ग्रीष्म-तपन से पीड़ित तरु मैं, तुम सावन के घन सी झरती
सूखी, उजड़ी शाखाओं को, नव पल्लव, वृन्तों से भरती

रंग तुम्हारा, चित्र तुम्हारे, मेरी तो बस भित्ति मात्र है
सुख का हर साधन है तुमसे, मेरी तो बस तृप्ति मात्र है

पथरीले पथ पर जीवन के तुम मृदुता बनकर छाई हो
चिर पतझड़ को खंडित करती नव बसंत लेकर आई हो
हर दुःख, चिंता, क्लेश, व्यग्रता क्षण भर में तुम हर लेती हो
कठिनाई के हर पल में तुम सदा मुझे संबल देती हो

साहस, बल, संकल्प तुम्हारा, मेरा बस संघर्ष मात्र है
साधन, परिश्रम, लगन तुम्हारी, मेरा बस उत्कर्ष मात्र है

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