" है मेरी कल्पना की उड़ान को करनी मंजिल की पहचान
क्या दिन? क्या रात? क्या जीवन की भागम भाग?
उड़ना है इसे उड़ के रहेगा
पाना है मंज़िल , न अब यह रुकेगा
क्यों हो बेबस? क्यों हो निर्मम?
यह तो है मेरी कल्पना की उड़ान, बस करनी है इसे मंज़िल की पहचान
दूर डगर हो तब भी नहीं, न कोई अगर हो तब भी नही
खुद का हौसला है, खुद की उमीदें
... खुद से वायदा है, खुद की जंजीरें
कोई अब इसे न रोक पायेगा, ये चला उड़ चला.........
कितने मौसम दिखे, कितनी रातें दिखीं
इन सबको निहारता हुआ,
घने मेघों से बचता हुआ,
खुले नभ में आकर पंख फैलाए अब है ये तैयार,
उड़ने दो इसे, ये है मेरी कल्पना की उड़ान "

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