एक बार ऐसा हुया कि ओमप्रकाश मास्टरजी ने कोई सवाल पूछा. छात्रो की पंक्ति के एक छोर की तरफ से एक एक लड़के को जवाब देने को कहा. क्योंकि सभी जमीन पर ही बैठते थे और मास्टर जी कुर्सी पर, तो खड़े हो कर जवाब देने की परम्परा थी. जो सही जवाब दे देता था उसे बैठने की अनुमति थी और गलत जवाब देने वाले को खडा रहना पड़ता था. अंत में सारे खड़े हुए दोषियों को किसी ना किसी प्रकार का दंड भोगना पड़ता था. मास्टर जी को कम से कम मेहनत करनी पड़े इस लिए ऊपर बताये गए दंड के तरीको के अतिरिक्त स्वयं को थप्पड़ मारना या दो दोषियों द्वारा एक दूसरे को थप्पड़ मारना भी सर्वस्वीकृत दंड प्रावधानों में शामिल थे. उस दिन प्रश्न कुछ ऐसा था की एक के बाद एक लोग खड़े होते चले गए और कोई भी सही जवाब नहीं दे पाया. फिर दूसरी पंक्ति का नम्बर आया उसमे भी लगभग आधी पंक्ति खडी होने के बाद मेरा नम्बर आया और मैंने दुर्भाग्य से सही जवाब दे दिया. गुरूजी का आदेश था कि सही जवाब देने वाला सभी गलत जवाब देने वालो के गाल पर एक एक थप्पड़ मारेगा. मैं क्लास के होशियार और पढ़ने वाले बच्चो में से एक था तो जाहिर है कि मैं शरीफ, डरपोक और निर्बल बच्चो में से भी एक था. अपने से कद में बड़े और बल में शक्तिशाली लडको को थप्पड़ मारने के मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी लेकिन गुरूजी की आज्ञा का पालन भी अनिवार्य था तो मैंने बीच का रास्ता निकाला और मैंने लडको को बहुत धीरे धीरे बड़े प्यार से थप्पड़ मारे. गुरूजी बोले बेटा मेरे पास आओ. मैं गुरूजी का प्रिय शिष्य था और उनका मेरे प्रति प्रेम भी सर्व विदित था इसलिए मैंने सोचा मुझे शाबासी देंगे. मैं उनके पास गया वो बोले दोनों हाथ सीधे नीचे करके सावधान मुद्रा में खड़े हो जाओ. मैं हो गया तो गुरूजी ने बिना किसी चेतावनी के चटाक की आवाज के साथ एक भरपूर थप्पड़ मेरे बाएं गाल पर रसीद कर दिया. मैं गिरते गिरते बचा. पूरी क्लास उपहास भरी नजरो से जैसा मेरा मजाक उड़ा रही थी. पूरा तन बदन अपमान, क्रोध, और पीड़ा की आग में जलने लगा था. पूरी क्लास जिस सवाल का जवाब नहीं दे पायी उस सवाल का जवाब देने का ये ईनाम? आखिर मेरी गलती क्या थी? गुरूजी की आवाज क्लास में गूंजी बेटा इसे कहते हैं थप्पड़. आशा है अब तुम ठीक से थप्पड़ मारना सीख गए होगे अब जाओ और ठीक से सबको एक एक थप्पड़ मारो. एक एक थप्पड़ की आवाज साफ़ साफ़ सुनायी देनी चाहिए. और हाँ बांये हाथ से सामने वाले का दांया कान पकड़ कर, अपने दाहिने हाथ से थप्पड़ मारना ताकि सामने वाला मुंह ना घुमा सके.
जनाब फिर क्या था मैंने आव देखा ना ताव और पूरी क्लास को कान पकड़-पकड कर तबीयत से चटाक-चटाक पेल दिया. उसके बाद गुरूजी ने मेरी काफी तारीफ़ की, सबको मेरे जैसा बनने के प्रवचन दिए और बताया कि देखना ये लड़का एक दिन डॉक्टर या इंजिनियर जरूर बनेगा. उसके बाद आधी छुट्टी हुयी और काफी लडको ने मुझे ओ डॉक्टर.... ओ इंजिनियर... कह कर चिढाया लेकिन कोई खास घटना घटित नहीं हुयी. जैसे जैसे दिन गुजरता जा रहा था मुझे एक अनजाने अनिष्ट की आशंका सताने लगी थी. पूरी छुट्टी होने पर मैं थोड़ी देर तक स्कूल में रुका रहा और ये विश्वास हो जाने के बाद की अब सब चले गए हैं स्कूल से निकला. आज मैंने तख्ती से बिजली के खम्भे की पिटाई भी नहीं की क्योंकि मुझे खुद की पिटाई का भय जो था. मेरी सारी कोशिश किसी तरह सुरक्षित घर तक पहुँचने की थी.
स्कूल हाथी खाने के पास था और मेरा घर घट्टा बाजार में. ठीक बीच में पड़ता था गांधी चौक. गांधी चौक से पहले छोटा जैन मंदिर और गांधी चौक के बाद घड़ीसाज वाली गली. गांधी चौक में एक सार्वजनिक प्याऊ थी और पास ही एक हैंडपंप. उस रास्ते से जाने वाले सभी लड़के उस हैंडपंप पर अपनी तख्ती धोया करते थे और फिर उसे वहीं मुल्तानी मिट्टी से पोत देते थे. इसका फायदा ये होता था कि घर पहुँचने तक हिलाते हिलाते तख्ती सूख कर अगले दिन के स्कूल के लिए तैयार हो जाती थी और खेल खेल में एक बड़ा काम निबट जाता था. मुझे आश्चर्य हुया कि उस दिन हैंडपंप खाली था और कोई भी लड़का वहां अपनी तख्ती नहीं धो रहा था. जैसे ही मैं गांधी चौक के बीचो बीच पहुंचा प्याऊ के पीछे छुपे हुए चेहरे प्रकट होने लगे. राजेश, मुकेश, ईतवारी, सुबोध, फकरू, सुन्दर वगैरहा वगैरहा. इनमे से आधे लडको ने मुझे पीछे से घेर लिया और आधे लडको ने आगे से. अब भागने की कोई संभावना नहीं बची थी. मेरे करने के लिए भी बहुत कम क्या कोई भी विकल्प उपलब्ध नहीं था. अब जो भी करना था उन्हें ही करना था और उन्होंने बड़ी लगन और मेहनत से वो किया. सबने मिलके मुझे खूब पीटा. मैं जो भी ज़रामरा प्रतिकार कर सकता था किया लेकिन इतने लोगो के सामने मेरी क्या बिसात? मैं जैसे तैसे जान बचा कर भागता-भागता वापस स्कूल पहुंचा. मास्टर जी सबसे बाहर वाले गेट का ताला लगा रहे थे. मैंने उन्हें रोते-रोते पूरी बात बतायी उन्होंने मुझे बड़े प्यार से पुचकारा, चुप कराया और आश्वासन दिया कि कल स्कूल में सबकी पिटाई की जायेगी. फिर वो अपने संरक्षण में मुझे मेरे घर तक छोड़ने के लिए साथ चल दिए.
लडको ने कभी स्वप्न में भी कल्पना नहीं की होगी कि मैं पिटने के बाद मास्टरजी से शिकायत करूंगा और मास्टर जी स्वयं मुझे छोड़ने साथ में आयेंगे. वो सभी लोग बड़े निश्चिन्त भाव से, बड़े मजे में हास परिहास करते हुए अपनी-अपनी तख्तियां धो रहे थे. उनका अचानक भागना संभव नहीं था क्योंकि उनका सामान बिखरा पड़ा था, बस्ते खुले हुए थे, चप्पल जूते भी उतरे हुए थे. उन्होने जैसे-तैसे सामान समेट कर भागने की कोशिश की. मास्टर जी के हाथ में जो भी आया उसकी उन्होंने यथायोग्य खातिरदारी की लेकिन लड़के ज्यादा थे और मास्टर जी अकेले तो किसी को दो थप्पड़ पड़े तो किसी को चार लेकिन अधिकतम लोग भागने में सफल रहे. दो लोग ऐसे थे जो मास्टर जी की पकड़ में आ गए थे. मुझे आज भी बहुत अच्छी तरह याद है उनमे से एक था सुन्दर और दूसरा था मुकेश. अब मास्टर जी का क्रोध सातवें आसमान पर था क्योंकि इन्होने उनके सबसे प्रिय छात्र और कक्षा में सबसे मेधावी विद्यार्थी को मारा था. ओम प्रकाश मास्टर जी बंद गले का कोट, पेंट और बिना फीते के देशी जूते पहनते थे. उन्होंने इन दोनों महापुरुषों को विभिन्न शाब्दिक विभूषणो से अलंकृत करते हुए मुख्य मार्ग के मध्य में ही अपनी चरण पादुकाये अपने हस्त कमलों में ले ली और इन महापुरुषों का पूर्ण संतुष्टि के साथ अथिति सत्कार किया. अगले दिन स्कूल में मास्टरजी ने सबको खुली धमकी दे दी थी कि अगर किसी मुझे हाथ भी लगाया तो वो उसके हाथ पैर तोड़ देंगे और उसके बाद किसी की मेरी ओर आँख उठा कर देखने की हिम्मत भी नहीं हुयी. हाँ वो ओ डॉक्टर... ओ इंजिनियर..... वाला मजाक चलता रहता था क्योंकि शाररिक हिंसा पर प्रतिबन्ध लग जाने के बाद उनके पास इस शाब्दिक हिंसा से मन को बहलाने के अतिरिक्त और कोई उपाय भी तो नहीं था.
पांचवी के बाद मैंने वो स्कूल छोड़ दिया. छटी या सातवीं में एक बार ऐसे ही सड़क पर चलते चलते किसी ने पीछे से मेरे कंधे पर हाथ रख कर पूछा कैसे हो बेटा? पलट कर देखा तो ओमप्रकाश मास्टरजी थे. मैंने वही बीच सड़क उनके पैर छुए, सामान्य सी कुशलक्षेम पूछने की बाते हुयी. दसवी के बाद मैंने बडौत ही छोड़ दिया और फिर जीवन में कभी मास्टर जी से मुलाकात नहीं हुयी. कई सालो बाद बडौत लौट कर मैंने स्कूल के बारे में जानने की कोशिश की तो पता चला कि वो स्कूल बंद हो चुका है और वहां कोई और बिल्डिंग बन गयी है.
आज मैं नहीं जानता कि मेरे ओम प्रकाश मास्टर जी इस दुनिया में हैं भी या नहीं लेकिन वो जहाँ भी हों मैं उन्हें बताना चाहता हूँ, मास्टर जी आज आप का प्रिय छात्र डॉक्टर भी बन गया है और इंजिनियर भी, शायद आपके थप्पड़ के आशीर्वाद से.
गुरु पूर्णिमा की पश्चिमसंध्या (शायद पूर्वसंध्या का विलोम ये ही होता होगा) पर ओम प्रकाश मास्टर जी को सादर समर्पित

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