कहीं पढ़ा मैंने लिखा हुआ कुछ यूँ...

की जब छोटे थे तब बड़े होने की चाहत थी
पर अब पता चली कि
अधूरे एहसास और टूटे सपनों से
अधूरे होमवर्क और टूटे खिलौने अच्छे थे

मैंने सोचा यार बात तो सही है लेकिन...

माना की अधूरे होमवर्क और टूटे खिलौनों
से सुंदर कोई दूसरी दुनिया नहीं है
पर ये भी भी एक हकीक़त ही है कि इन
अधूरे एहसासों और टूटे खिलौनों ने
नक़ाब के भीतर की दुनिया दिखा दी .

बचपन में जो सीखते थे नन्हे हाथों से
माँ का हाथ थाम ठोकरे खाकर -
आज दुनिया की ठोकरों ने
बिना हाथ थामे चलना सिखा दिया
घूम लेते थे दुनिया पापा के कन्धों पर
आज कंधो की ज़िम्मेदारी ने ही
दुनिया को खुली आँखों से दिखा दिया

खिलौने जो कभी सपने थे, आज सपने भी खिलौने हैं
जो अधूरेपन के धब्बे हैं आँखों से ही धोने हैं

मगर माँ की वो सीख,"बेटा गिरकर फिर उठाना है
घुटनों को झाड़कर फिर दुबारा चलना है"
जो टूटे सपने हैं एक बार फिर से बुन लूँगा
और धन्यवाद अधूरेपन के एहसास को
एक बार फिर खुद अपनी राह को चुन लूँगा
पापा गर्व गरेंगे और माँ मुस्कुराएगी
जब मैं बैठूँगा अपने पूरेपन के एहसास में
प्रसन्नता से हकीकत में बदले हुए सपनो के साथ.

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