कुछ  मिले  तुम  उस  मोर  पर  जहाँ  हम  भी  अकेले  थे  और  तुम  भी  ,खैर  सोचा  नहीं  था  की  हम  मिलेंगे  बस  चलते  आ  रहे  थे , अपने  उस  सफर  से  ऊब कर  की  शायद  कोई  मुशाफिर  मिले  जहाँ  हम  कुछ  पल  ठेहर  सकें|
अक्सर इस डगर पर अनजान मिलते है मुस्कुराते है और अपनी सहूलियत के हिसाब से दरकिनार हो जाते | पता था मुझे सब , फिर भी ना जाने किस वजह से कदम रूक नहीं पा रहे थे ,
आखिर वो  मोर आया जब तुमने मुझे टोका , मैंने भी अपनी सफर को थोड़ा आराम देने को सोचा | अब बारी थी समझने की मुशाफिर कहाँ जा रहा है इस डगर पर , उसने मुझ से मेरा नाम , काम और पता भी पूछ लिए तब तक , मैंने सब सच कह दिआ फिर थोड़ी उलझन हुई की मेरी बारी आ  नहीं रही की , हम भी जान सकें उनको जिन्होंने मुझे ५ मं मिनट में इतना जान लिआ | 
मैंने बस इतना पुछा की मंजिल क्या है आपकी , क्या हम एक ही मंजिल तलाश रहे ?
मुझे येह पता था आगे मंजिल एक हुई तोह हम बेहतर समझ लेंगे एक दुसरे को |
अब मंजिल एक थी पता चला, इशारो में खुल के किसी ने कवायत नहीं की पर इशारे काफी थे , अब हम बढ़ने लगे मन ही मन दोनों येह समझने लगे मुशाफिर कुछ दूर तक साथ तो जरूर है | अब रात गहरी हो चुकी थी उसके चंचल मन का अहसास भी हो चूका था पर उसे और कुड़ेरना था ताकि  मन  की बात जुबान पर आ सकें| कोशिशे कुछ इस  कदर जारी थी सारे सफर की थकान का पता चलने के बाद मैंने हलके से समां बाँधा की हमारी मुलाकात अगर कुछ अलग होती तोह क्या होता ?
वो मेरे खयालो में उलझती जा रही थी पहले समझ नहीं आ रहा था उसे  की क्या हम वहीँ जा रहे  जहाँ का सोचा था, अब तय था हमारे सुर मिल गए मैंने अपने खयालो में बहोत गोते लगाए ,उसने अपने मन को चंचल होने दिया पर खुल कर सामने नहीं आयी |
मुझे अब इंतज़ार का सब्र न था पर उसने सब्र को न जाने क्यों बांधे रखा ,मुझे होश में आने का अब तसब्बुर न था पर ना जाने क्यों अपने आँचल को हर पल संभालती रही ,अब थोड़ी  झुंझलाहट सी थी पर उसे ख्याल था सँभालने का मुझे ,थोड़ी और गहरी हुई रात और हम बेखबर थे , वो अब समेटना चाहती थी पर हम लिपटे रहे उसी चादर में , उसके मन के अंदर चलने वाले हर पहलु को सोचता रहा और विस्वास कराता रहा मंजिल एक है साथ चलना होगा एक दूसरे का हाथ थामना होगा पर उसका वो चंचल मन मुझ में और मेरे सफर में डुबकी लगा रही थी वो तय नहीं कर पा रही कि खुद को खोल कर  रख दूँ ए मुशाफिर तुम मुझे अपनी और ले चलो |
उसको करीब आना था पर मेरी शर्तो से घबराती रही मैं मंजिल के हवाले से उससे समझाता रहा पर रात यहीं बीत गयी हमारे ख्यालो और शर्तो में |
 

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