जिन सामानों की अब किसी को ज़रूरत नहीं 
मैं अब भी वो दुकान ले कर बैठा हूँ 
हर एक चोट पे नए दिल बना लेते हैं 
मैं अब तलक एक निशाँ लेकर बैठा हूँ 
हसरतें अब महलों की हो चली हैं
और मैं एक टूटा हुआ मकान लेकर बैठा हूँ 
रोशिनी थी तो एक ग़ुरूर भी रहा 
बुझ गया चिराग़ अब धुआँ लेकर बैठा हूँ
                            
                                                            
                            
                                
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                                    - RANJEET SONI                                
                            
                            
                        
                    
