अगर लिखने का हुनर बराबर भी हो तो आदमी और औरत कैसे लिखते हैं।
आदमी शांति से अपनी स्‍टडी में बंद होकर एक सिगरेट सुलगाता है, अपनी किताबों पर उंगलियां फिराता है, लिखे हुए पन्‍नों को उलट-पलटकर देखता है, पुराने इश्‍क को याद करता है, लैपटॉप खोलता है और शांति से लिखता है। उसकी स्‍टडी के बंद दरवाजे के भीतर कुकर की सीटी नहीं सुनाई देती, उबलते हुए दूध की महक नहीं आती, बच्‍चे गुल नहीं मचाते। वॉशिंग मशीन की आवाज कानों को नहीं सताती। बर्तन धुलने की खटपट नहीं होती, अखबार वाला आवाज नहीं लगाता, पुराने बिलों का हिसाब-किताब नहीं जोड़ा जाता। सास-नंदोई का फोन नहीं आता। उस स्‍टडी में सिर्फ आदमी रहता है, उसकी किताबें और उसके शब्‍द।
और एक औरत-
औरत भागते-भागते लिखती है। कुकर में दाल चढ़ाकर आती है और लिखती है। बच्‍चे की दूध की बोतल तैयार करते हुए लिखती है। कपड़े सुखाते हुए लिखती है, बाई को कामों की ताकीद करते हुए लिखती है, दफ्तर से लौटते हुए रोजमर्रा के जरूरी सामानों की लिस्‍ट बनाते हुए लिखती है। फर्नीचरों पर पड़ी धूल झाड़ते हुए लिखती है, फ्रिज में रखे स्‍प्राउट्स का जंगल साफ करते हुए लिखती है, बच्‍चे का होमवर्क कराते हुए लिखती है, सास के फोन का जवाब देते हुए लिखती है, दूधवाले, अखबार वाले के बिल का हिसाब जोड़ते हुए लिखती है। नौकरी से लौटकर आने के बाद पूरे घर को संभालकर, खिलाकर, सुलाकर लिखती है।
आदमी लिखता है क्‍योंकि उसे सुख-चैन है।
औरत इतनी तकलीफों के बावजूद लिखती है क्‍योंकि वो बेचैन है।

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